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हम लोग कभी झूठ न बोलते थे, कभी छल न करते थे।

पर हॉ लड़ कभी कभी पड़ते थे। पर वह लड़ाई बड़े मजो की होती थी। उसमें जो हार मान लेता था---उसी की जीत होती थी और उसी की खुशामद होती थी। जीतने वाले को उसे जगल में या छत पर लेजाकर गले मे बांह डाल कर मिठाई खिलानी पड़ती थी। कभी कभी बड़ा सा गुलाब जामुन मुंँह मे ठूँस देना पड़ता था। और कभी कभी? हाँ उसे भी अब न छिपाऊँगा वही गुलाब जामुन आधा उसके मुँह मे देकर आधा दांतों से कुतर लेना पड़ना था। हम लोग एक दूसरे को पढ़ाया करते थे। हमारे बीच मे कोई न था। हम दोनों एक थे। हममे एक प्राण था, एक रस था, एक दिल था---एक जान थी।

पर यह देर तक रहा नहीं। हृदय से भीतर न रहा गया। वह हवा खाने बाहर निकला। कुछ काम काज का भार भी उस पर पड़ा। बस हवा बह चली, तार टूट गया। मोती बिखर गये। बुद्धि बढ़ गई। अपने को पहचानने लगे। पाजी ज्ञान ने कान भर दिये। डायन बुद्धि ने बहका दिया। हमने अपनी अपनी ओर को देखा। अपनी अपनी सुध ली। उसी क्षण से परस्पर को देखना कम हुआ परस्पर की सुध लेने की सुध ढीली पड़ गई। वही ढील कहाँ की

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