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आँखमिचौनी

मै अपने चिर सहचर शैशव के साथ खुले खेल में मगन थी, परन्तु असम्पूर्ण तारुण्य मेरी ताक मे था, वह कुसुम कली को झोंके दे दे कर 'झकझोर झकझोर कर, उसे मधुर हास्य हँसा हँसा कर, मेरे मनोरजन की चेष्टा चुपचाप किया करता था। कभी वह भौरा बन कर गूंजने लगता, कभी वासन्ती वायु के साथ मुझे आ छूता। कभी चाँदनी रात और कभी झिलमिल सुनहरी धूप मे हँसने लगता था।

मै उसे पहचानती न थी। मुझे उसकी परवाह न थी। मेरा सहचर शैशव मुझे बहुत भाता था, मैं उसके साथ खेलती रहती, परन्तु वह फिर मेरे चारों ओर घूमने लगा, एक दिन उसने मुझे छू लिया--मै लजा गई, छुई मुई सी सिकुड़ गई।