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अगणित---अथाह गगनभेदी रुदन। सब ने कहा---"क्या हो गया?" पिता पागल की तरह दौड़ आये। उनकी आँखों मे ऑसू नहीं थे। उन्होंने गाकर कहा---"लुट गया धींग धनी धन तेरा।" उनके नेत्रो मे उन्माद था। दो चार पड़ोसियों ने उन्हे पकड़ कर धैर्य रखने की प्रार्थना की। उन्होंने करारे स्वर में कहा?---मैं क्यों रोता हूँ? मैं क्या बालक हूँ? मुझे क्या तुम बेसमझ समझते हो?"

मैं यहाँ भी न हर सका। भीतर गया। माता ने आकाश फाड़ रक्खा था। वह कला के शरीर को छोड़ती ही न थी। मैंने उसे गोद मे लिया। पर कुछ बोल न सका। मैं भी रो रहा था। मन को रोका। मैने कहा---"अम्मा! रोओ मत। तुम्हारी बेटी का भाग्य कितनों की बेटियों से अच्छा है। वह जहाँ गई, धन धान्य लक्ष्मी को लेकर गई। अब वह सुहागन ही पृथ्वी से जा रही है। ऐसा सौभाग्य कितनी स्त्रियों को मिलता है?"

माँ को, कुछ आश्वासन मिला। उसके उन्माद पर कुछ सावधानी के छीटे पड़े। उन्होंने गगनभेदी क्रन्दन छोड़कर कला का गुण गान शुरू किया। अब मै ठहर न सका। स्मृति ने कष्ट देना प्रारम्भ किया। बचपन से अब तक के चित्र सामने आने लगे। पिता जी ने बाहर से ही स्वर

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