बाध्याय: मानयोग का और समस्त क्रियाओंका त्याग करके बैठ जाता है वह नहीं। १ टिप्पनी-अग्निसे तात्पर्य है साधनमात्र । जब अग्निके द्वारा होम होते थे तब अग्निकी आवश्यकता थी। इस युगमें यदि चरखेको सेवाका साधन मानें तो उसका त्याग करनेसे संन्यासी नहीं हुआ जा सकता। यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन ॥२॥ हे पांडव ! जिसे संन्यास कहते हैं उसे तू योग जान । जिसने मनके संकल्पोंको त्यागा नहीं वह कभी योगी नहीं हो सकता। २ आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥३॥ योग साधनेवालेको कर्म साधन है, जिसने उसे साधा है उसे शांति साधन है ३ टिप्पनी-जिसकी आत्मशुद्धि हो गई है, जिसने समत्व सिद्ध कर लिया है, उसे आत्मदर्शन सहज है। इसका यह अर्थ नहीं है कि योगारूढ़को लोकसंग्रहके लिए भी कर्म करनेकी आवश्यकता नहीं रहती। लोकसंग्रहके बिना तो वह जी ही नहीं सकता। अतः सेवाकर्म करना भी उसके लिए सहज हो जाता है।
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