पांचवा अध्याय : कर्मसंन्यासयोग अटल और अनिवार्य है। और जो जैसा करता है उसको वैसा भरना ही पड़ना है। इसीमें ईश्वरकी महान् दया और उसका न्याय विद्यमान है। शुद्ध न्यायमें शुद्ध दया है। न्यायकी विरोधी दया, दया नहीं है, बल्कि क्रूरता है। पर मनुष्य त्रिकालदर्शी नहीं है। अतः उसके लिए तो दया-क्षमा ही न्याय है। वह स्वयं निरंतर न्यायका पात्र बना हुआ क्षमाका याचक है। वह दूसरेका न्याय क्षमासे ही चुका सकता है । क्षमाके गुणका विकास करनेपर ही अंतमें अकर्ता-- योगी-समतावान-कर्ममें कुशल बनता है। नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥१५॥ ईश्वर किसीके पाप या पुण्यको नहीं ओढ़ता । अज्ञानद्वारा ज्ञानके ढक जानेसे लोग मोहमें फंसते हैं। १५ टिप्पणी--अज्ञानसे, 'मैं करता हूं' इस वृत्तिसे मनुष्य कर्मबंधन बांधते हुए भी भले-बुरे फलका आरोप ईश्वरपर करता है, यह मोहजाल है । ज्ञानेन तु तदज्ञान येषां नाशितमात्मनः । तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।।१६।। परंतु जिनके अज्ञानका आत्मज्ञानद्वारा नाश हो ,
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