दस - ही मुझे प्रतीत हुई है। साधारण पारिवारिक झगड़ोंके पौचित्य-अनौ- चित्यका निर्णय करनेके लिए गीता-जैसी पुस्तककी रचना संभव नही है । गीताके कृष्ण मूर्तिमान् शुद्ध संपूर्ण ज्ञान है; परंतु काल्पनिक है। यहां कृष्ण नामके अवतारी पुरुषका निषेध नही है । केवल संपूर्ण कृष्ण काल्पनिक हैं, संपूर्णावतारका प्रारोपण पीछेसे हुमा है। अवतारसे तात्पर्य है शरीरधारी पुरुषविशेष । जीवमात्र ईश्वरके अवतार हैं, परंतु लौकिक भाषामें सबको हम भवतार नही कहते । जो पुरुष अपने युगमें सबसे श्रेष्ठ धर्मवान है, उसे भावी प्रजा अवताररूपसे पूजती है । इसमें मुझे कोई दोष नही जान पडता। इसमें न तो ईश्वरके बड़प्पनमें कमी आती है, न उसमे सत्यको प्राघात पहुचता है । "प्रादम खुदा नहीं; लेकिन खुदाके नूरसे आदम जुदा नही।" जिसमे धर्म-जागृति अपने युगमें सबसे अधिक है वह विशेषावतार है । इस विचारश्रेणीसे कृष्णरूपी संपूर्णावतार प्राज हिंदूधर्ममे साम्राज्य भोग रहा है । यह दृश्य मनुष्यकी अंतिम सदभिलाषाका सूचक है। मनुष्यको ईश्वररूप हुए बिना चैन नहीं पड़ता, शांति नहीं मिलती। ईश्वररूप होनेके प्रयत्नका नाम सच्चा और एकमात्र पुरुषार्थ है और यही प्रात्म- दर्शन है। यह प्रात्मदर्शन सब धर्मग्रयोका विषय है, वैसे ही गीताका भी है। पर गीताकारने इस विषयका प्रतिपादन करनेके लिए गीता नहीं रची, वरन् आत्मा को प्रात्मदर्शनका एक अद्वितीय उपाय बतलाना गीताका प्राशय है। जो चीज हिंदूधर्मग्रंथोमें छिट-फुट दिखाई देती है, उसे गीताने अनेक रूपों, अनेक शब्दोमे, पुनरुक्तिका दोष स्वीकार करके भी, मच्छी तरह स्थापित किया है। यह अद्वितीय उपाय है 'कर्मफलत्याग' । इस मध्यबिंदुके चारों ओर गीताकी सारी सजावट है। भक्ति, मान इत्यादि उसके आसपास तारामंडलरूपमें सज गये हैं। जहाँ देह
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