मो । इस मनुवादमें मेरे साथियोंकी मेहनत मौजूद है। मेरा संस्कृतज्ञान बहुत अधूरा होनेके कारण शब्दार्थपर मुझे पूरा विश्वास नहीं हो सकता था, प्रतः इतनेभरके लिए इस अनुवादको विनोबा, काका कालेलकर, महादेव देसाई और किशोरलाल मशरूवालाने देख लिया है। (२) अब गीताके अर्थपर माता हूं। सन् १८८८-८६ मे जब गीताका प्रथम दर्शन हुआ तभी मुझे ऐसा लगा कि यह ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, वरन् इसमें भौतिक युद्धके वर्णनके बहाने प्रत्येक मनुष्यके हृदयके भीतर निरंतर होते रहनेवाले द्वंद्वयुद्धका ही वर्णन है। मानुषी योद्धामोकी रचना हृदयगत युद्धको रोचक बनानेके लिए गढ़ी हुई कल्पना है । यह प्राथमिक स्फुरणा धर्मका और गीताका विशेष विचार करनेके बाद पक्की हो गई। महाभारत पढ़नेके बाद यह विचार और भी दृढ़ हो गया। महाभारत ग्रंथको मैं आधुनिक अर्थमें इतिहास नहीं मानता। इसके प्रबल प्रमाण प्रादिपर्वमें ही हैं। पात्रोंकी अमानुषी और अतिमानुषी उत्पत्तिका वर्णन करके व्यास भगवानने राजा- प्रजाके इतिहासको मिटा दिया है। उसमें वर्णित पात्र मूलमें ऐतिहासिक भले ही हों, परंतु महाभारतमें तो उनका उपयोग व्यास भगवानने केवल धर्मका दर्शन करानेके लिए ही किया है। महाभारतकारने भौतिक युवकी आवश्यकता नहीं, उसकी निरर्थकता सिद्ध की है। विजेतासे रुदन कराया है, पश्चात्ताप कराया है मौर दुःखके सिवा और कुछ नही रहने दिया । इस महाग्रंथमें गीता शिरोमणिरूपसे विराजती है। उसका दूसरा अध्याय भौतिक युद्धव्यवहार सिखानेके बदले स्थितप्रशके लक्षण सिखाता है। स्थित- प्रशका ऐहिक युद्ध के साथ कोई संबंध नहीं होता, यह बात उसके लक्षणोंमेसे
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