चौवा प्रध्याय:सानकर्मसंन्यासयोग - " श्रीमगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे जन्म तो बहुत हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूं, तू नहीं जानता । अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ॥६॥ मैं अजन्मा, अविनाशी और इसके सिवा भूतमात्र- का ईश्वर हूं; तथापि अपने स्वभावको लेकर अपनी मायाके बलसे जन्म ग्रहण करता हूं। ६ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७ ॥ हे भारत ! जब-जब धर्म मंद पड़ता है, अधर्म जोर करता है, तब-तब मैं जन्म धारण करता हूं। ७ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ ८॥ साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंके विनाश तथा धर्मका पुनरुद्धार करनेके लिए युग-युग में मैं जन्म लेता हूं। ८ टिप्पणी-यहां श्रद्धालुको आश्वासन है और सत्य- की-धर्मकी-अविचलताकी प्रतिज्ञा है। इस संसार- .
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