अनासक्तियोग करते हैं। अनुकरण दूसरे लोग करते हैं। वे जिसे प्रमाण बनाते हैं, उसका लोग अनुसरण २१ न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥२२॥ हे पार्थ । मुझे तीनों लोकोंमें कुछ भी करनेको नहीं है। पाने योग्य कोई वस्तु न पाई हो ऐसा नहीं है, तो भी मैं कर्ममें लगा रहता हूं। २२ टिप्पणी--सूर्य, चंद्र, पृथ्वी इत्यादिकी अविराम और अचूक गति ईश्वरके कर्म सूचित करती है। ये कर्म मानसिक नहीं, किंतु शारीरिक गिने जायंगे । ईश्वर निराकार होते हुए भी शारीरिक कर्म करता है, यह कैसे कहा जा सकता है, इस शंकाकी गुंजाइश नही है; क्योंकि वह शारीरिक होनेपर भी शरीरोंकी तरह आचरण करता हुआ दिखाई देता है। इसलिए वह कर्म करते हुए भी अकर्मी है और अलिप्त है। मनुष्यको समझना तो यह है कि जैसे ईश्वरकी प्रत्येक कृति यंत्रवत् काम करती है वैसे मनुष्यको भी बुद्धिपूर्वक किंतु यंत्रकी भांति ही नियमित काम करना उचित है। मनुष्यकी विशेषता यंत्रगतिका अनादर करके स्वेच्छाचारी हो जानेमें नहीं है, बल्कि ज्ञानपूर्वक उस गतिका अनुकरण करने में है। अलिप्त रहकर, असंग
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