पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५२

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35 अनासक्तियोग ४ न कर्मणामनारम्भाग्नष्कम्यं पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति ॥४॥ कर्मका आरंभ न करनेसे मनुष्य निष्कर्मताका अनुभव नहीं करता है और न कर्मके केवल बाहरी त्यागसे मोक्ष पाता है। टिप्पशी-निष्कर्मता अर्थात् मनसे, वाणीसे और शरीरसे कर्म न करनेका भाव । ऐसी निष्कर्मताका अनुभव कर्म न करनेसे कोई नहीं कर सकता। तब इसका अनुभव कैसे हो सो अब देखना है । न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणः ।। ५ ।। वास्तवमें कोई एक क्षणभर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । प्रकृतिसे उत्पन्न हुए गुण परवश पड़े प्रत्येक मनुष्यसे कर्म कराते है । कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियान्विमुढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ ६॥ जो मनुष्व कर्म करनेवाली इंद्रियोंको रोकता है, परंतु उन-उन इंद्रियोंके विषयोंका चिंतन मनसे करता है, वह मूढात्मा मिथ्याचारी कहलाता है। टिप्पणी-जैसे, जो वाणीको तो रोकता है; पर मनमें किसीको गाली देता है, वह निष्कर्म नही है; ६