पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५१

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तीसरा प्रयाय : कर्मयोग 36 अधिक श्रेष्ठ मानते हैं तो हे केशव ! आप मुझे घोर कर्ममें क्यों लगाते हैं ? ट्रिप्पणी-बुद्धि अर्थात् समत्वबुद्धि । व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ २॥ अपने मिले-जुले वचनोंसे मेरी बुद्धिको आप शंका- ग्रस्त-सी कर रहे हैं। अतः आप मुझे एक ही बात निश्चयपूर्वक कहिए कि जिससे मेरा कल्याण हो। २ टिप्पणी--अर्जुन उलझनमें पड़ जाता है; क्योंकि एक ओरसे भगवान उसे शिथिल हो जानेका उलाहना देते हैं और दूसरी ओरसे दूसरे अध्यायके ४९वें, ५०वें श्लोकोंमें कर्मत्यागका आभास मिलता है। गंभीरतासे विचारनेपर ऐसा नहीं है, यह भगवान आगे बतलायेंगे । श्रीभगवानुवाच लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठापुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥ ३ ॥ श्रीभगवान बोले- हे पापरहित ! इस लोकमें मैंने पहले दो अवस्थाएं बतलाई हैं : एक तो ज्ञानयोगद्वारा सांख्योंकी, दूसरी कर्मयोगद्वारा योगियोंकी। ३