पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/४९

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दूसरा मध्याय : सांस्ययोग प्रपंच बढ़ाता है और ईश्वरको भूलता है, उधर संयमी सांसारिक प्रपंचोंसे बेखबर रहता है और ईश्वरका साक्षात्कार करता है । इस प्रकार दोनोंका पंथ न्यारा है। यह इस श्लोकमें भगवानने बतलाया है। आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठ समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥७॥ नदियोंके प्रवंशसे भरता रहनेपर भी जैसे समुद्र अन्चल रहता है, वैसे ही जिस मनुष्यमें संसारके भोग शांत हो जाते हैं, वही शांति प्राप्त करता है, न कि कामनावाला मनुष्य । विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥७१॥ सब कामनाओंका त्याग करके जो पुरुष इच्छा, ममता और अहंकाररहित होकर विचरता है, वही शांति पाता है। ७१ एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥७२॥ हे पार्थ ! ईश्वरको पहचाननेवालेकी स्थिति ऐसी होती है। उसे पानेपर फिर वह मोहके वश नहीं होता . ७०