दूसरा अध्याय : सांख्ययोग २५ सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥३८॥ सुख और दुःख, लाभ और हानि, जय और पराजयको समान समझकर युद्धके लिए तैयार हो । ऐसा करनेसे तुझे पाप नहीं लगेगा। ३८ एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिोंगे त्विमा शृणु । बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥३९।। मैंने तुझे सांख्यसिद्धांत (तर्कवाद) के अनुसार तेरा यह कर्तव्य बतलाया। अब योगवादके अनुसार समझाता हूं सो सुन । इसका आश्रय लेनेसे तू कर्मबंधनको तोड़ सकेगा। ३९ नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते । स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥४०।। इसमें आरंभका नाश नहीं होता, उलटा नतीजा नहीं निकलता। इस धर्मका थोड़ा-सा पालन भी महाभबसे बचा लेता है। व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन । बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥४१॥ हे कुरुनंदन ! योगवादीकी निश्चयात्मक बुद्धि एकरूप होती है, परंतु अनिश्चयवालोंकी बद्रियां अनेक शाखाओंवाली और अनंत होती
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