दूसरामयाब : सांस्पयोग नहीं, क्योंकि धर्मयुद्धकी अपेक्षा क्षत्रियके लिए और फुछ अधिक श्रेयस्कर नहीं हो सकता। ३१ यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥३२॥ हे पार्थ ! यों अपने-आप प्राप्त हुआ और मानो स्वर्गका द्वार ही खुल गया हो ऐसा युद्ध तो भाग्यशाली अत्रियोंको ही मिलता है। ३२ अथ चेत्त्वमिमं धम्यं संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥३३॥ यदि तू यह धर्मप्राप्त युद्ध नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा। अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्। संभावितस्य चाकीर्ति- मरणादतिरिच्यते सब लोग तेरी निंदा निरंतर किया करेंगे और सम्मानित पुरुषके लिए अपकीर्ति मरणसे भी बुरी है। भयाद्रणादुपरतं मस्यन्ते त्वां महारथाः । वेषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाषवम् ॥३५।। जिन महारथियोंसे तूने मान पाया है, वे तुझे ॥३४॥
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