पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/३०

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अनासक्तियोग न अवाप्य यच्छेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वा प्रपन्नम् ॥ ७ ॥ कायरतासे मेरी (जातीय) वृत्ति मारी गई है। मैं कर्तव्य-विमढ़ हो गया है। इसलिए जिसमें मेरा हित हो, वह मुझसे निश्चयपूर्वक कहनेकी आपसे प्रार्थना करता हूं। मैं आपका शिष्य हू । आपकी शरणमें आया हूं। मुझे मार्ग बतलाइए। हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् भूमावसपत्नमृद्ध राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥ ८ ॥ इस लोकमें धनधान्यसंपन्न निष्कंटक राज्य मिले और इंद्रासन मिले तो उसमें भी इंद्रियोंको चूस लेने- वाले मेरे शोकको दूरकर सकने-जैसा मैं कुछ नहीं देखता। संजय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेश परंतप । न योत्म्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णी बभूव ह ॥ ९ ॥ संजयने कहा- हे राजन! गुडाकेश अर्जुन हृषीकेश गोविंदसे ऐसा कहकर, 'नहीं लडूंगा' कहते हुए चुप हो गये। ८ ९