.. अगएका माय : संम्बालयोन शरीरवालमनोभियत्कर्म प्रारभते नरः। न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चते तस्य हेतवः ॥१५॥ शरीर, वाचा अथवा मनसे जो कोई भी कर्म मनुष्य नीतिसम्मत या नीतिविरुद्ध करता है उसके ये पांच कारण होते हैं। १५ तवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः । पश्यत्यकृतबुद्धित्वान स पश्यति दुर्मतिः ॥१६॥ ऐसा होनेपर भी, असंस्कारी बुद्धिके कारण जो अपनेको ही कर्ता मानता है वह दुर्मति कुछ समझता नहीं है। १६ यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाल्लोकान हन्ति न निबध्यते ॥१७॥ जिसमें अहंकारभाव नहीं है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इस जगतको मारते हुए भी नहीं मारता, न बंधनमें पड़ता है। टिप्पनी-ऊपर-ऊपरसे पढ़नेपर यह श्लोक मनुष्यको भुलावेमें डालनेवाला है ।गीताके अनेक श्लोक काल्पनिक आदर्शका अवलंबन करनेवाले हैं। उसका सच्चा नमूना जगतमें नहीं मिल सकता और उपयोगके लिए भी जिस तरह रेखागणितमें काल्पनिक आदर्श आकृतियोंको आवश्यकता है उसी तरह धर्म-व्यवहारके
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