पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२१७

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सम्मको अध्याय : मायविभागयोग यह वाचिक १५. देवद्विजगुरुप्रामपूजनं शीचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥१४॥ देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीकी पूजा, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा-यह शारीरिक तप कह- लाता है। १४ अनुढेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङमयं तप उच्यते ॥१५॥ दुःख न देनेवाला, सत्य, प्रिय, हितकर वचन तथा धर्मग्रंथोंका अभ्यास कहलाता है। मनःप्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥१६॥ मनकी प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम, भावनाशुद्धि यह मानसिक तप कहलाता है । श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं अफलाकाअक्षिभिर्युक्तः सात्त्विक परिचक्षते ॥१७॥ समभावयुक्त पुरुष जब फलेच्छाका त्याग करके परम श्रद्धापूर्वक यह तीन प्रकारका तप करते हैं तब उसे बुद्धिमान लोग सात्त्विक तप कहते हैं। सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत् । क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।।१८।। नरैः ।