तमेव चाचं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥४॥ उसका यथार्थ स्वरूप देखने में नहीं आता। उसका अंत नहीं है, आदि नहीं है, नींव नहीं है । खूब गहराई- तक गई हुई जड़ोंवाले इस अश्वत्थवृक्षको असंगरूपी बलवान शस्त्रसे काटकर मनुष्य यह प्रार्थना करे 'जिसने सनातन प्रवृत्ति-मायाको फैलाया है उस आदि पुरुषकी में शरण जाता हूं।' और उस पदको खोजे जिसे पानेवालेको पुनः जन्ममरणके फेरमें पड़ना नहीं पड़ता। ३-४ टिप्पसो-असंगसे मतलब है असहयोग, वैराग्य । जबतक मनुष्य विषयोंसे असहयोग न करे, उनके प्रलो- भनोंसे दूर न रहे तबतक वह उनमें फंसता ही रहेगा। इस श्लोकका आशय यह है कि विषयोंके साथ खेल खेलना और उनसे अछूते रहना यह अनहोनी बात है। निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । द्वन्द्वैविमुक्ताः सुखदुःखसंज- गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥५॥ जिसने मान-मोहका त्याग किया है, जिसने आसक्तिसे होनेवाले दोषोंको दूर किया है, जो आत्मामें नित्य निमग्न है, जिसके विषय शांत हो गये हैं, जो
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