पौरहवां सम्मानमवबिमामयोग ऊध्र्व गच्छन्ति सस्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥१८॥ सात्त्विक मनुष्य ऊंचे चढ़ते हैं, राजसी मध्यमें रहते हैं और अंतिम गुणवाले तामसी अधोगति पाते हैं। १८ नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोधिगच्छति ॥१९॥ ज्ञानी जब ऐसा देखता है कि गुणोंके सिवा और कोई कर्ता नहीं है और जो गुणोंसे पर है उसे जानता है तब वह मेरे भावको पाता है। १९ टिप्पनी-गुणोंको कर्ता माननेवालेको अहंभाव होता ही नहीं। इससे उसके सब काम स्वाभाविक और शरीरयात्राभरके लिए होते हैं। और शरीरयात्रा परमार्थके लिए ही होती है, इसलिए उसके सारे कामोंमें निरंतर त्याग और वैराग्य होना चाहिए। ऐसा ज्ञानी स्वभावतः गुणोंसे परे निर्गुण ईश्वरकी भावना करता और उसे भजता है। गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैविमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥२०॥ देहके संगसे उत्पन्न होनेवाले इन तीन गुणोंको पार करके देहधारी जन्म, मृत्यु और जराके दुःखसे छूट जाता है और मोक्ष पाता है। २०
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