पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१८६

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यदा है। निर्विकार मनुष्यके नेत्र कोई गंदगी नहीं देखते। प्रकृति व्यभिचारिणी नहीं है। अभिमानी पुरुष जब उसका स्वामी बनता है तब उस मिलापमेंसे विषय- विकार उत्पन्न होते हैं। भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ॥३०॥ जब वह जीवोंका अस्तित्व पृथक् होनेपर भी एकमें ही स्थित देखता है और इसीलिए सारे विस्तारको उसीसे उत्पन्न हुआ समझता है तब वह ब्रह्मको पाता है। टिप्पी--अनुभवसे सब कुछ ब्रह्ममें ही देखना ब्रह्मको प्राप्त करना है । उस समय जीव शिवसे भिन्न नहीं रह जाता। अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥३१॥ हे कौंतेय ! यह अविनाशी परमात्मा अनादि और निर्गुण होनेके कारण शरीरमें रहता हुआ भी न कुछ करता और न किसीसे लिप्त होता है। यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥३२॥ जिस प्रकार सूक्ष्म होनेके कारण सर्वव्यापी आकाश