पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१७६

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इन सबमें जो समतावान है, जिसने आसक्ति छोड़ दी है, जो निदा और स्तुतिमें समान भावसे बर्तता है और मौन धारण करता है, चाहे जो मिले उससे जिसे संतोष है, जिसका कोई अपना निजी स्थान नहीं है, जो स्थिर चित्तवाला है, ऐसा मुनि भक्त मुझे प्रिय है। १८-१९ ये तु धामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽसीव मे प्रियाः ॥२०॥ यह पवित्र अमृतरूप ज्ञान जो मुझमें परायण रहकर श्रद्धापूर्वक सेवन करते हैं वे मेरे अतिशय प्रिय भक्त हैं। २० ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका ‘भक्ति- योग' नामक बारहवां अध्याय । क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग इस अध्यायमें शरीर और शरीरीका भेद बतलाया sha