पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१७५

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. यस्मानोशिजते लोको लोकानोविजते च यः । हमिर्षभयोगर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१५॥ जिससे लोग उद्वेग नहीं पाते, जो लोगोंसे उद्वेग नहीं पाता; जो हर्ष, क्रोष, ईर्ष्या, भय, उद्वेगसे मुक्त है, वह मुझे प्रिय है। १५ अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६॥ जो इच्छारहित है, पवित्र है, दक्ष (सावधान) है, तटस्थ है, चिंतारहित है, संकल्पमात्रका जिसने त्याग किया है वह मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काबक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७॥ जिसे हर्ष नहीं होता, जो द्वेष नहीं करता, जो चिंता नहीं करता, जो आशाएं नहीं बांधता, जो शुभाशुभका त्याग करनेवाला है, वह भक्तिपरायण मुझे प्रिय है। १७ समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥१८॥ तुल्यनिन्दास्तुतिमांनी संतुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥१९॥ शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दुःख-