इस दृष्टिसे मूर्तिपूजाका निषेध करनेवाले भी सूक्ष्म- रीतिसे विचारा जाय तो मूर्तिपूजक ही होते हैं। पुस्तककी पूजा करना, मंदिरमें जाकर पूजा करना, एक ही दिशामें मुख रखकर पूजा करना, ये सभी साकार पूजाके लक्षण हैं । तथापि साकारके उस पार निराकार अचित्य स्वरूप है, इतना तो सबके समझ लेनेमें ही निस्तार है। भक्तिकी पराकाष्ठा यह है कि भक्त भगवानमें विलीन हो जाय और अंतमें केवल एक अद्वितीय अरूपी भगवान ही रह जाय । पर इस स्थिति- को साकारद्वारा सुलभतासे पहुंचा जा सकता है, इसलिए निराकारको सीधे पहुंचनेका मार्ग कष्टसाध्य बतलाया है। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥६॥ तेषामह समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥७॥ परंतु हे पार्थ ! जो मुझमें परायण रहकर, सब कर्म मुझे समर्पण करके, एक निष्ठासे मेरा ध्यान धरते हुए मेरी उपासना करते हैं और मुझमें जिनका चित्त पिरोया हुआ है उन्हें मृत्युरूपी संसार-सागरसे मैं झटपट पार कर लेता हूं। ६-७
पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१७२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।