पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१६६

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पहले न देखा हुआ आपका ऐसा रूप देखकर मेरे रोएं खड़े हो गये हैं और भयसे मेरा मन व्याकुल हो गया है। इसलिए हे देव ! अपना पहलेका रूप निख- लाइए। हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइए। ४५ किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त- मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । तेनंव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव । विश्वमूर्ते ॥४६।। पूर्वकी भांति आपका-मुकुट, गदा, चक्रधारीका दर्शन करना चाहता हूं ! हे सहस्रबाहु ! हे विश्वमूर्ति ! अपना चतुर्भुजरूप धारण कीजिए। ४६ श्रीभगवानुवाच प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् । तेजोमयं विश्वमनन्तमायं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥४७।। श्रीमगवान बोले- हे अर्जुन ! तुझपर प्रसन्न होकर तुझे मैंने अपनी शक्तिसे अपना तेजोमय, विश्वव्यापी, अनंत, परम, मया