पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१४४

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हे जनार्दन ! अपनी शक्ति और अपनी विभूतिका वर्णन मुझसे फिर विस्तारपूर्वक कीजिए । आपकी अमृत- मय वाणी सुनते-सुनते तृप्ति होती ही नहीं । १८ श्रीमगवानुवाच हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥१९॥ श्रीमगवान बोले- हे कुरुश्रेष्ठ ! अच्छा, मैं अपनी मुख्य-मुख्य दिव्य विभूतियां तुझे कहूंगा । उनके विस्तारका अंत तो है ही नहीं। अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०॥ हे गुडाकेश ! मैं सब प्राणियोंके हृदयमें विद्यमान मात्मा हूं। मैं ही भूतमात्रका आदि, मध्य और अत २० आदित्यानामह विष्णुज्योतिषां रविरशुमान् । मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥२१॥ आदित्योंमें विष्णु मैं हूं, ज्योतियोंमें जगमगाता