पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१३४

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नासलियोन बरसने देता हूं। अमरता मैं हूं, मृत्यु मैं हूं और हे अर्जुन ! सत् तथा असत् भी मैं ही हूं। विद्या मां सोमपाः पूतपापा यहरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते । ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक- मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥२०॥ तीन वेदके कर्म करनेवाले सोमरस पीकर निष्पाप बने हुए यज्ञद्वारा मुझे पूजकर स्वर्ग मांगते हैं। वे पवित्र देवलोक पाकर स्वर्ग में दिव्य भोग भोगते हैं। २० टिप्पणी-सभी वैदिक क्रियाएं फल-प्राप्तिके लिए की जाती थीं और उनमेंसे कई क्रियाओंमें सोमपान होता था, उसका यहां उल्लेख है। वे क्रियाएँ क्या थीं, सोमरस क्या था, यह आज वास्तवमें कोई नहीं कह सकता ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोक विशन्ति एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥२१॥ इस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर वे पुण्यका क्षय हो जानेपर मृत्युलोकमें वापस आते हैं। इस प्रकार तीन वेदके कर्म करनेवाले फलकी इच्छा रखनेवाले