पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१३१

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ना मध्याय : रामविचारागझयोग लय पाते हैं और कल्पका आरंभ होनेपर में उन्हें फिर रचता हूं। प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥८॥ अपनी मायाके आधारसे में इस प्रकृतिके प्रभाबके अधीन रहनेवाले प्राणियोंके सारे समुदायको बारंबार उत्पन्न करता हूं। न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय । उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ।। ९॥ हे धनंजय ! ये कर्म मुझे बंधन नहीं करते, क्योंकि में उनमें उदासीनके समान और आसक्तिरहित बर्तता ८ hoc मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयंते सचराचरम् । हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥१०॥ मेरे अधिकारके नीचे प्रकृति स्थावर और जंगम जगतको उत्पन्न करती है और इस हेतु, हे कौंतेय ! जगत घटमाल (रहँट) की भांति घूमा करता है। १० अवजानन्ति मा मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् । परं भावमजानन्तो भूतमहेश्वरम् ॥११॥ प्राणीमात्रका महेश्वररूप जो मैं हं उसके भावको न जानकर मूर्ख लोग मझ मनुष्य-तनधारीकी अवज्ञा करते हैं। मम