अनासक्तियोग जिस समय अग्निकी ज्वाला उठ रही हो उस समय जिसकी मृत्यु होती है वह ब्रह्मको जाननेवाला ब्रह्मको पाता है। धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । चान्द्रमसं ज्योति- योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥ दक्षिणायनके छ: महीनोंमें, कृष्णपक्षमें, रात्रिी, जिस समय धुआं फैला हुआ हो उस समय मरनेवाले चंद्रलोकको पाकर पुनर्जन्म पाते हैं । २५ टिप्पणी-ऊपरके दो श्लोक मैं पूरी तौरसे नहीं समझता। उनके शब्दार्थका गीताकी शिक्षाके साथ मेल नहीं बैठता। उस शिक्षाके अनुसार तो जो भक्ति- मान है, जो सेवामार्गको सेता है, जिसे ज्ञान हो चुका है, वह चाहे जभी मरे, उसे मोक्ष ही है । उससे इन श्लोकोंका शब्दार्थ विरोधी है। उसका भावार्थ यह अवश्य निकल सकता है कि जो यज्ञ करता है अर्थात् परोपकारमें ही जो जीवन बिताता है, जिसे ज्ञान हो चुका है, जो ब्रह्मविद् अर्थात् ज्ञानी है, मृत्युके समय भी यदि उसकी ऐसी स्थिति हो तो वह मोक्ष पाता है। इससे विपरीत जो यज्ञ नहीं करता, जिसे ज्ञान
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