मनासक्तियोग प्रवक्ष्ये ॥११॥ च । यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । यदिन्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं सग्रहण जिसे वेद जाननेवाले अक्षर नामसे वर्णन करते हैं, जिसमें वीतराग मुनि प्रवेश करते हैं और जिसकी प्राप्तिकी इच्छासे लोग ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, उस पदका संक्षिप्त वर्णन मैं तुझसे करूंगा। सर्वद्वाराणि सयम्य मनो हृदि निरुध्य माधायात्मनः प्राण- 'मास्थितो योगधारणाम् ॥१२॥ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥१३॥ इंद्रियोंके सब द्वारोंको रोककर, मनको हृदयमें ठहराकर, मस्तकमें प्राणको धारण करके समाधिस्थ होकर ॐ ऐसे एकाक्षरी ब्रह्मका उच्चारण और मेरा चिंतन करता हुआ जो मनुष्य देह त्यागता है वह परम- गतिको पाता है। १२-१३ अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥१४॥ हे पार्थ! चित्तको अन्यत्र कहीं रखे बिना जो नित्य
पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१२२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।