पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१०२

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अनासक्तिबोग आत्माको परमात्माके साथ जोड़नेका प्रयत्न करने- वाले स्थिरचित्त योगीकी स्थिति वायुरहित स्थानमें अचल रहनेवाले दीपककी-सी कही गई है। यत्रोपरमते चित्तं निरुद्ध योगसेवया यत्र चैवात्मनात्मान पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥२०॥ सुखमात्यन्तिकं यत्त बुद्धि ग्राह्यमतीन्द्रियम् । वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥२१॥ यं लब्ध्वा चापर लाभ मन्यते नाधिकं ततः । यस्मिस्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥२२॥ तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोग योगस जितम् । स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिविण्णचेतसा ।।२३।। योगके सेवनसे अंकुशमें आया हुआ मन जहां शांति पाता है, आत्मासे ही आत्माको पहचानकर आत्मामें जहां मनुष्य संतोष पाता है और इंद्रियोंसे परे और बुद्धिसे ग्रहण करनेयोग्य अनंत सुखका जहां अनुभव होता है, जहां रहकर मनुष्य मूलवस्तुसे चलायमान नहीं होता और जिसे पानेपर दूसरे किसी लाभको वह उससे अधिक नहीं मानता और जिसमें स्थिर हुआ महादुःखसे भी डगमगाता नहीं, उस दुःखके प्रसंगसे रहित स्थितिका नाम योगकी स्थिति समझना चाहिए। यह योग ऊबे बिना दृढ़तापूर्वक साधने योग्य २०-२३