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अनामिका कुछ लोग वेचते गा गा गर्दभ-मर्दन-स्वर, हिन्दी-सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग, मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार, लार्ड के लाडलों को देता दावत-विहार; इस तरह खर्च केवल सहस्र पट मास मास पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल, पत्रों के प्रतिनिधि दल में मच जाती हलचल, दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर, होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर, बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे अपर; फिर देता दृढ़ सन्देश देश को मर्मान्तिक, भाषा के बिना न रहती अन्य गन्ध प्रान्तिक, जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर, समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर फिर, फिर पितासङ्ग जनता की सेवा का व्रत मैं लेता श्रभङ्ग,