यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अनामिका प्रस्वेद, कम्प, क्यों ज्यों युग उर में और चाप- और सुख-मम्पः निश्वास सघन पृथ्वी की-बहती लू : निर्जीवन जड़-चेतन । यह सान्ध्य समय, प्रलय का दृश्य भरता अम्बर, पीताभ, अग्निमय, ज्यों दुर्जय, निधूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर, कर भस्भी-भूत समस्त विश्व को एक शेप, सड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश । " में मन्दनामन, -- घक्ति, विरक्त, पाव-दर्शन से खींच नयन, चल रहा नदीतट को करता मन में विचार- 'हो गया व्यर्थ जीवन, मैं रण में गया हार! सोचा न कभी-- अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी !! ८४: -