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अनामिका - पाया आधार भार-गुरुता मिटाने को, था जो तरङ्गों में बहता हुआ, कल्पना में निरवलम्ब, पर्यटक एक अटवी का अज्ञात, पाया किरण-प्रभात- पथ उज्ज्वल, सहर्ष गति। केन्द्र दो आ मिले एक ही तत्त्व के, सृष्टि के कारण वे, कविता के काम-बीज। कौन फिर फिर जाता ? बँधा हुआ पाश मे ही सोचता जो सुख-मुक्ति कल्पना के मार्ग से, स्थित भी जो चलता है, पार करता गिरि-शृङ्ग, सागर-तरङ्ग, अगस गहन थलङध्य पथ, लावण्यमय सजत, खोला सहृदय-स्नेह । ७६.