यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रेखा शत-शत वे बन्धन ही नन्दन-स्वरूप-से आ सम्मुख खड़े थे!-- स्मितनयन, चन्चल, चयनशील, अति-अपनाव-मृदु भाव खोले हुए ! मन का जड़त्व था, दुर्बल वह धारणा चेतन की मूछित लिपटती थी जड़ों से बारम्बार । सब कुछ तो था असार अस्तु, वह प्यार ?-- सब चेतन जो देखता, स्पर्श में अनुभव--रोमान्च, हर्ष रूप में--परिचय, विनोदसुख गन्ध मे, रस में मज्जनानन्द, शब्दों में अलङ्कार, खींचा उसी ने था हृदय यह, जड़ों में चेतन-गति कर्षण मिलता कहाँ ? । > ७५ :