यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अनामिका शैथिल्य चरणों में, दीखी नहीं तब तक एक ही मूर्ति में तन्मय असीमता। सृष्टि का मध्यकाल मेरे लिये। तृष्णा की जागृति का मूर्त राग नयनों में। हुताशन विश्व के शब्द-रस-रूप-गन्ध दीपक-पतङ्ग से अन्ध थे आ रहे एक आकर्षण में और यह प्रेम था! तृष्णा ही थी सजग मेरे प्रतिरोम में। रसना रस-नाम-रहित किन्तु रस-वाहिका! भोग-वह भोग था, शब्दों की आड़ में शब्द-भेद प्राणों का-- घोर तम सन्ध्या की स्वर्ण-किरण-दीप्ति में ! ७४साँचा:कॉपीराइटउल्लंघनसाँचा:सही