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अनामिका अन्त में मेरी ध्रुवतारा तुम प्रसरित दिगन्त से अन्त में लाई मुझे सीमा में दीखी असीमता- एक स्थिर ज्योति में अपनी अबाधता- परिचय निज पथ का स्थिर। वक्ष पर धरा के अब तिमिर का भार गुरु पीड़ित करता है प्राण, आते शशाङ्क तब हृदय पर आप ही, चुम्बन-मधु ज्योति का, अन्धकार हर लेता। छाया के स्पर्श से कल्पित सुख मेरा भी प्राणों से रहित था,- कल्पना ही एक दूर सत्य के आलोक से,- निर्जन-प्रियता में था मौन-दुःख साथी बिना