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रेखा श्राती समीर जैसे स्पर्श कर अङ्ग एक अज्ञात किसी का, सुरभि सुमन्द में हो जैसे अङ्गराग-गन्ध, में कुसुमों में चितवन थतीत की स्मृति-रेखा- परिचित चिर-काल की, दूर चिर-काल से; विस्मृति से जैसे खुल पाई हो कोई स्मृति ऐसेही प्रकृति यह हरित निज छाया में कहती अन्तर की कथा रह जाती हृदय में। बीते अनेक दिन बहते प्रिय-बक्ष पर ऐसे ही निरुपाय बहु-भाव-भङ्गों की यौवनन्तरङ्गों में। निरुद्देश मेरे प्राण दूर तक फैले उस विपुल अज्ञान में खोजते थे प्राणों को, जड़ में ज्यों वीतराग चेतन को खोजते। ७१.