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उद्बोधन गरज गरज घन अन्धकार में गा अपने सङ्गीत, बन्धु, वे बाधा-बन्ध-विहीन, आँखों में नव जीवन की तू अञ्जन लगा पुनीत, बिखर भर जाने दे प्राचीन । बार बार उरकी वीणा मे कर निष्ठुर झङ्कार उठा तू भैरव निर्जर राग, बहा उसी स्वर मे सदियों का दारुण हाहाकार सब्चरित कर नूतन अनुराग । बहता अन्ध प्रभजन ज्यों, यह त्योंही स्वर-प्रवाह मचल कर दे चञ्चल आकाश, उड़ा उड़ा कर पीले पल्लव, करे सुकोमल राह,- तरुण तरु,भरप्रसून की प्यास । कॉपे पुनार पृथ्वी शाखा-कर-परिणय-माल, सुगन्धित हो रे फिर आकाश, पुनार गायें नूतन स्वर, नव कर से दे ताल, चदुर्दिक छा जाये विश्वास ।