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अनामिका नग्न बाहुओं से उछालती नीर, तरङ्गों में हूये दो कुमुदों पर हँसता था एक कलाधर, ऋतुराज दूर से देख उसे होता था अधिक अधीर। वियोग से नदी-हृदय कम्पित कर, तट पर सजल-घरण-रेखाएँ निज अङ्कित कर, केश-भार जल-सिक्त चली वह धीरे धीरे शिला-खण्ड की ओर, नव-वसन्त काँपा पत्रों में, देख दृगों की कोर। अङ्ग-अङ्ग में नव-यौवन उच्छृङ्खल, किन्तु बॅधा लावण्य-पाश से नम्र सहास अचञ्चल। झुकी हुई कल कुञ्चित एक अलक ललाट पर, बढ़ी हुई ज्यों प्रिया स्नेह की खड़ी बाट पर।

  • भाव है-(दिन में भी) दो कुमुद (उरोजों) को देख कर बन्न

( (मुख) हंस रहा था।