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तट पर नव वसन्त करता था वन की सैर जब किसी क्षीण-कटि तटिनी के तट तरुणी ने रक्खे थे अपने पैर । नहाने को सरि वह आई थी, साथ वसन्ती रॅग की, चुनी हुई, साड़ी लाई थी। काँप रही थी वायु, प्रीति की प्रथम रात की नवागता, पर प्रियतम-कर-पतिता-सी प्रेममयी, पर नीरव अपरिचिता-सी किरण-बालिकाएँ लहरों से खेल रही थीं अपने ही मन से, पहरों से। खड़ी दूर सारस की सुन्दर जोड़ी, क्या जाने क्या क्या कह कर दोनों ने प्रीवा मोड़ी। रक्खी साड़ी शिला-खण्ड पर ज्यों त्यागा कोई गौरव-वर। देख चतुर्दिक, सरिता में उतरी तिर्यग्हग, अविचल-चित ।

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