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अपने अतीत का ध्यान करता मैं गाता था गाने भूले अम्रीयमाण ! एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते सञ्चार उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र भकार, विकल वीणा के टूटे तार ! मेरा कुल क्रन्दन, न्याकुल वह स्वर-सरित्-हिलोर वायु में भरती करुण मरोर बढ़ती है तेरी ओर। मेरे ही क्रन्दन से उमड़ रहा यह तेरा सागर सदा अधीर, मेरे ही बन्धन से निश्चल- नन्दन-कुसुम-सुरभि-मधु-मदिर समीर

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