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प्रिया से मेरे कवि ने देखे तेरे स्वप्न सदा अविकार, नहीं जानती क्यों तू इतना करती मुझको प्यार । तेरे सहज रूप से रंग कर झरे गान के मेरे निर्भर, भरे अखिल सर, स्वर से मेरे सिक्त हुआ संसार । २६.३.२४ B .४३: