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अनामिका बङ्किम कर ग्रीवा बाहु-वल्लरियों को बढ़ाकर मिलनमय चुम्बन की कितनी वे प्रार्थनाएँ बढ़ती थीं सुन्दर के समाराध्य मुख की और तृप्तिहीन तृष्णा से। कितने उन नयनों ने प्रेम-पुलकित होकर दिये थे दान यहाँ मुक्त हो मान से! कृष्णाधन अलकों मे कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था ! आभा में पूर्ण, वे बड़ी बड़ी ऑखें, पल्लवों की छाया में बैठो रहती थीं मूर्ति निर्भरता की बनी। कितनी वे राते स्नेह की बातें रक्खे निज हृदय मे आज भी है मौन यहॉ-