यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ज्योत्स्नाकुल सुमनों की सुरा पिला तू प्याला शुभ्र करों का रख अधरों पर ! बहे हृदय में मेरे, प्रिय, नूतन आनन्द प्रवाह, सकल चेतना मेरी होये लुप्त और जग जाये पहली चाह लखू तुझे ही चकित चतुर्दिक, अपनापन मैं भूल, पड़ा पालने पर मैं सुख से लता-अङ्क के झूल; केवल अन्तस्तल में मेरे सुख की स्मृति की अनुपम धारा एक बहेगी, मुझे देखती तू कितनी अस्फुट बाते मन-ही-मन सोचेगी, न कहेगी! एक लहर आ मेरे उर में मधुर कराधातों से देगी खोल हृदय का तेरा चिरपरिचित वह द्वार, कोमल चरण बढ़ा अपने सिंहासन पर बैठेगी, फिर अपनी उर की वीणा के उतरे ढीले तार कोमल-कली उंगुलियों से कर सज्जित, प्रिये, बजायेगी, होंगी सुरललनाएँ भी लज्जित ! . ३५ ।