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खंडहर के प्रति - " खड़हर! खड़े हो तुम आज भी ? अद्भुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज ! विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें- करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए ? पवन-सवरण के साथ ही परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज- आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का भेजते सब देशों में, क्या है उद्देश तव ? बन्धन-विहीन भव! ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के ? अथवा, हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण, निर्निमेष नयनों से बाट जोहते हो तुम मृत्यु की अपनी सन्तानों से बूंद भर पानी को तरसते हुए ?

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