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प्रलाप - -- वीणानिन्दित वाणी बोल ! संशय-अन्धकारमय पथ पर भूला प्रियतम तेरा- सुधाकर-विमल धवल मुख खोल ! प्रिये, आकाश प्रकाशित करके, शुष्ककण्ठ कण्टकमय पथ पर छिड़क ज्योत्स्ना घट अपना भर भरके ! शुष्क हूँ-नीरस हूँ-उच्छृङ्खल- और क्या क्या हूँ, क्या मैं दूं अब इसका पता, बता तो सही किन्तु वह कौन घेरनेवाली पाहु-बल्लियों से मुझको है एक कल्पना-लता ? अगर वह तू है तो आ चली विगगण के इस कल कूजन मे- लता-कुञ्ज में मधुप-पुब्ज के 'गुनगुनगुन' गुञ्जन मे, क्या सुख है यह कौन कहे सखि, निर्जन में इस नीरव मुख-चुम्बन में ?