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अनामिका उम दिशि सत्वर, वह महासम लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटित ज्यों रक्त पद्म बैठे उस पर, नरेन्द्र-वन्दित ज्यों देवेश्वर । पर रह न सके, > बन्ध का सुखद भार भी सह न सके। उर की पुकार जो नव संस्कृति की सुनी विशद, मार्जित, उदार, था मिला दिया उससे पहले ही अपना उर, इसलिए खिचे फिर नहीं कभी, पाया निज पुर जन-जन के जीवन में साहस, है नहीं जहाँ वैशिष्ट्य-धर्म का भ्रू-विलास- - -