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मित्र के प्रति नहीं त्रास, अतः मित्र, नहीं 'रक्ष, रक्ष'। उड़े हुए थे जो कण, उतरे पा शुभ वर्षण, शुक्ति के हृदय से बन मुक्ता झलक . लखो, दिया है पहना किसने यह हार बना भारति-उर में अपना, देख हग थके! . १७ :