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अनामिका
 

सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को!—
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द—
भावों में विशृङ्खल बहता हुआ भी स्थिर।
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल-मान-ग्रन्थि मे बँधकर चली गई;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के—
उनकी ही में हुई!
समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।
बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन-निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतर कर पर्वत से निर्झरी भूमि पर

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