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नर्गिस त्यों ही नभ और पृथ्वी लिये ज्योत्स्ना ज्योतिर्धार, सूक्ष्मतम होता हुआ जैसे तत्व ऊपर को गया, श्रेष्ठ मान लिया लोगों ने महाम्बर को, स्वर्ग त्यों धरा से श्रेष्ठ, बड़ी देह से कल्पना, श्रेष्ठ सृष्टि स्वर्ग की है खड़ी सशरीर ज्योत्स्ना । (२) युवती धरा का यह था भरा वसन्त-काल, हरे-भरे स्तनों पर पड़ी कलियों की माल, सौरभ से दिक्कुमारियों का मन सोंचकर बहता है पवन प्रसन्न तन खींचकर । पृथ्वी स्वर्ग से ज्यों कर रही है होड़ निष्काम मैंने फेर मुख देखा, खिली हुई अभिराम नर्गिस, प्रणय के ज्यों नयन हों एकटक प्रिय-भाव-भरे देखते हुए रहे हो थक, मुख पर लिखी अविश्वास की रेखाएँ पढ़ स्नेह के निगड़ में ज्यों बँधे भी रहे हैं कढ़। कहती ज्यों नर्गिस-"आई जो परी पृथ्वी पर स्वर्ग की, इसी से हो गई है क्या सुन्दरतर ? - १८७: